जीवन एक यज्ञ है

 जीवन एक यज्ञ है-

   


    मनुष्य वर्षों से भोग की कामना के लिए हर तरफ प्रयास करता है।भोग  क्या है?एक तरह की भूख है। जहां जीवन है वहां भूख है जहां भूख है वहां भोजन है जहां भोजन है वहां संघर्ष है।यह संघर्ष ही हिंसा को जन्म देता है। हिंसा मात्र व्यक्तियों को पीड़ा पहुंचाने का काम नहीं करती है,वरन पेड़ों को काटना तथा कंक्रिट की इमारतें खड़ी करना नदियों को समाप्त करना भी है। यह हिंसा हमें दिखाई नहीं देती परंतु आने वाली पीढ़ियों  के लिए ख़तरनाक परिणाम देगी इसलिए हर हाल में स्वयं को नियंत्रित करना आवश्यक है। उचित प्रबंध के बिना यह जीवन पशु तुल्य है।

           ईश्वर द्वारा निर्मित जगत में मनुष्य ही एकमात्र उच्च श्रेष्ठ अवस्था में है ।मनुष्य  पशुओं से भिन्न इसलिए है कि उसकी बुद्धि विकसित अवस्था में है ।उसे सोचने समझने की शक्ति अन्य सभी प्राणियों से ज्यादा मिली है। वह सुख-दुख की अवस्थाओं का अनुभव कर  सकता है।इस अनुभव की वजह से उसे उद्देश्य निर्धारण की शक्ति प्राप्त होती है। यह अनुभव ही अधिक सुख पाने की लालसा उत्पन्न करता है,जो पुन:भूख के संघर्ष को जन्म देता है।

               इसके विपरीत यदि हम यह माने कि जीवन एक यज्ञ है तो जीना ज्यादा आसान तथा ओरो के लिए कल्याणकारी हो जाएगा ।श्रीमद्भागवत गीता में यज्ञ को बहुत अच्छे से परिभाषित किया है।

     यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३।।कर्म योग

    अर्थात यज्ञ के अवशिष्ट (प्रसादरूप अन्न) को खानेवाले सज्जन समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं; किन्तु जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे पापी लोग पाप को ही खाते हैं। 

       जो यज्ञ करता है उसे यजमान या पुरोहित कहते हैं ।सबसे ज्यादा पवित्र है उसकी आहुति यज्ञ की अग्नि में अर्पित की जाती है तथा देवताओं को संतुष्ट करने का प्रयास किया जाता है। बदले में प्रसाद स्वरूप जो मिले उसे स्वीकारा जाता है। स्पष्टत: श्रीमद्भागवत गीता यज्ञ को संक्षेप में इस प्रकार करती है कि हम कर्म करते हैं बदले में हमें जो मिले उसे स्वीकारते हैं ।यह यज्ञ है।बिना कुछ दिए जो पाते हैं या पाने की चेष्टा करते हैं वह यज्ञ नहीं है। और बिना कुछ पाने की चाह में यज्ञ करते हैं। वह निष्काम कर्म हुआ और यही मुक्ति का मार्ग है।

                  श्रीमद्भागवत गीता असुर प्रवृत्ति के व्यक्तियों को इस आधार पर अलग करती है।जीवन रूपी यज्ञ में बिना कुछ दिए ,अधिक पाने की चाह रखते हैं वे स्वयं के संतुलन के साथ स्रष्टी के संतुलन को भी बिगाड़ते हैं। यह जीवन का प्रबंधन लेने तथा देंने की प्रक्रिया पर आधारित है ।आप जितना लेते हो उससे अधिक देने की प्रवृत्ति को जागृत कर लेते  हो तो जीवन के लक्ष्य को पाने के करीब हो।या आप जितना देते हो उसके बदले में जो मिलता है उसे स्वीकारते हो यह भी स्वयं तथा प्रकृति के बीच संतुलन की स्थिति होती हैं।यह जीवन का संतुलन ही यज्ञ है

         बिना कर्म के जीवन संभव नहीं कर्म की ऊर्जा को सकारात्मक बनाए रखने के लिए श्रीमद्भागवत गीता में दिए यज्ञ को समझना आवश्यक है।यज्ञ ही अहम और परम के बीचऐसा संबंध है जो परस्पर परिवर्तन पर आधारित है। जो व्यक्ति जीव, प्रकृति,ईश्वर के समन्वय को समझता है उसी अनुरूप कार्य करने का प्रयास करता है, वही जीवन के दर्शन को समझता हैं ।वही सफलता प्राप्त करता है ।उन्हीं का जीवन सुंदर बना रहता है।

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